स्वर्णिम दर्पण

(Kumar dhananjay suman) #1
दी

संतोष


.......✍ संतोष।।।


हफ़ के ज से
एहसास के ह को हटाता कै से
जब, अब भी ज़दा ह
ल तेरे ख़त के
तुम ही कहो
भला उसको म जलाता कै से?

दरया का रंग
सुख़ हो जाता
तेरे अफ़ाज का
अफसाना सुन
तुम ही कहो फर
भला उनको म बहाता कै से?

फज़ाओं म घुल जाती
तेरे जबात क महक
सांस म फर तेरी
खुशबू समा जाती
तुम ही कहो, उन मदहोश ख़त
भला म उड़ाता कै से?

इनम ही तो, वो ताज़ा याद ह
जनको लए जीता ं म
उखरी ,उधरी, सांस को
इनके मख़मली एहसास से, सीता ं

तहो- दर- तह म लपटी पड़ी है
जदगानी मेरी
तुम ही कहो, इनको घर से
भला म हटाता कै से?

बस यही तो मयत है
बेनाम अधूरे र क
इतनी बड़ी जागीर
दे दी तुमने, हम नादानी म
तुम ही कहो, इस अनमोल ख़ज़ाने को
तु भला म लौटाता कै से ??

ख़त

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