स्वर्णिम दर्पण

(Kumar dhananjay suman) #1

आरती ύ ̊वेदी


'गौरी' झूठा हम हँसते ह न समझोगे

ार तु से ही करते ह न समझोगे ।
कम जीते ादा मरते ह न समझोगे ॥
आँखे भी ह तु समपत अब इनम,
ाब तुारे ही पलते ह न समझोगे ।
रीत गई तन मन क गागर बस यूँही,
बूँद-बूँद से हम भरते ह न समझोगे ।
खेल ख कर ब जैसे भाग गए,
दाम अधूरा हम देते ह न समझोगे ।
कोई कहेगा ा सोचकर चले गए,
बदनामी तो हम सहते ह न समझोगे ।
आधी-आधी जो फाड़ी थी कभी कताब,
आधी ही तबसे पढ़ते ह न समझोगे ।
कोई आँसू देख दद को जान न ले,

न समझोगे

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