स्वर्णिम दर्पण

(Kumar dhananjay suman) #1
नई दी

सं˞ा नंदी

लेकन कँ हा जी?
हम नह सुधरगे का नारा लेकर खड़ा हो गया इंसान
जँहा जगह मली , जँहा मौका मला
आँख तरेरते आ गये सारे के सारे
क हम से बढ़ कर कौन?
जो होते थे कु कम कभी छु प - छु प कर
होने लगे ह अब खुलेआम
ना परदा रहा नयन का
ना शम ओ हया रही आचरण म मयादा का रह गया
सफ नाम

दखाने लगे औकात
नकार कर , सरकार क बात
पता है सबको , देख रह ह सारे
मरना सबको है , जाना सबको है
पर हाय - तौबा तब भी मचा रखी है
दो गज जमीन क जगह
और फै लने क ज मचा रखी है

बीमारी के बढ़ने का सलसला
और मौत का आंकड़ा बढ़ते ही जा रहा है ?
सब जानते है
पर अँधे ाथपन के वशीभूत
गलतयाँ पर गलतयाँ करते चले जा रहे ह
ये नह देख रह ह क परमाा क व सवाय मानव
के
कसी भी अ जीव पर नह पड़ी
?
क हम ह अ के अंधे
भगवन् ने रचा सबको
सफ इंसान को रचा अपने प म
इसलए बेवकू फ इंसान ंय को ही भगवन् समझ बैठा

नत नयी चालाकय , नत नयीp मारय
से लैस
तू जा कँ हा रहा है
ये तो सोच
ग और नरक सब यह है
सफ नणय ही तेरा है
सोच फर से सोच

इस कोरोना काल मη




इस कोरोना काल म जदगी को बेहद नजदीक से देखने
का व मला
यूँ लगा खुदा कर रहा हो इजा
क देख ले बंदे अपनी जदगी क हककत
अपने ही बछाए जाल म फं सता जा रहा है तू
उलझता ही जा रहा है तू मकड़ी क तरह
इंसान बना कर भेजा था ान का भंडार देकर
कर लया ना सानाश अपना?
अभी भी व है बेगैरत्
सभंल जा रे मुख

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