स्वर्णिम दर्पण

(Kumar dhananjay suman) #1
ालयर MP

माला अƷात


बाक हर शै तो फानी है


पर को भी धड़कन देद
अहसास अगर हानी है
ार ही ज तक जा
बाक हर शै तो फानी है

जब दल के दो हे हो जाय
इक दुनया दूजे म यतम
दुनया से बोल कतना भी
य से श पड़ जाते कम
मन क भाषा नजर समझ
बोली तो आनी जानी है
ार ही ज तक जा
बाक हर शै तो फानी है

नदया ढूँढं लेती पथ अपना
संगम वेणी सा हो जाता खुद
मन से मन क राह जुड़े जब
खो जाती है सारी सुधबुध
हमालय से पघले जब गंगा
पावस नमल पानी है
ार ही ज तक जा
बाक हर शै तो फानी है

नद से पहले,जगने के बाद
आधी नद भी ाल तुारा
बाँध रखा है कस धागे से
बढ़ता ही जाये ार तुारा
संगीत य क धड़कन का
धुन भी जानी पहचानी है
ार ही ज तक जा
बाक हर शै तो फानी है

दुनया क हर शै म तुम हो
जतनी दूर जहाँ तक देखूँ
घ तुमसे बात कँ म
छोटी छोटी बात पर झगडू़ँ
कभी दूर जाते जो देखूँ
तड़पू मछली बन पानी है
ार ही ज तक जा

υहानी एहसास
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