स्वर्णिम दर्पण

(Kumar dhananjay suman) #1

उमा 'पुपुन'


घर बत करीने से सजाकर रखा है,
लेकन ेम भाव से बुलाता नह कोई!

अब घर म शु हवा के वेश क भी अनुमत नह
फर मेहमान को बुलाए कै से कोई?
अब तो मतलब से ही सब खैरयत पूछते ह,
उस शहर म उनको,अब काम हो कोई!

कांच क ेट पर धूल सी जम गई है,
बेचैन होकर अब, राह तकता नह कोई!
मन क बात को समझने क समझ अब कहां रही,
धन को बढ़ाने क कोशश म,मशफ है हर कोई!

उँगलय पे गनने को ह ,अपन क लंबी सूची,
दय तल म अब बसाता नह कोई!!
जसने जतना र का मान दया,
उसको ही गलत ठहराता है हर कोई!!

बाहर से मंगाए खाने क लत हो गई है सब को,
अपन के संग चाय पर ठहाके नह लगाता कोई!!
दूरयां कु छ इस तरह बढ़ गई ह,
सपने म भी अब कम आता है कोई

दूόरयां

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