स्वर्णिम दर्पण

(Kumar dhananjay suman) #1

आशा झा सखी


। इसी बात को याद रखते ए रमेश जी मालती से बोले- देखो मालती, मने आज भी तुारी ही इा का


मान रखा है। म चाहता तो तुमको अपने पास महसूस करने के लए ये साड़ी अपने पास रख सकता था।


पर तुारा इस साड़ी से लगाव देखकर मने सोचा लया तुम इसी साड़ी म इस घर से वदा हो जसे पहनकर


तुम इस घर म , मेरे जीवन म वेश क थ। बस इस बात का ान रखना क अपनी अनंत क याा म


मुझे मत बसरा देना। अपने कम का फल भोग कर म भी आ रहा ँ कु छ दन बाद तुारे पास। ये बोलते


ए रमेश जी ने मालती क माँग भरते ए उसक छव आंख म बसा ली। तभी बाहर शोर होने लगा।सभी


लोग मालती अंतम याा को आगे को सूण करवाने के लए कहने लगे। रमेश जी ने भी इस याा


को पूरी करने के लए कदम बढ़ा दए। शानघाट पर सारी या होने के बाद जब रमेश जी जलती ई


चता को देख रहे थे।तभी उनको लगा क मालती उसी पीली साड़ी म चता से नकल कर उनके पास


आयी और बोली- तुमको मेरा अंतम णाम,मेरी भावनाओं का सान करने के लए तुारा दय से


आभार।तुम अपना ान रखना। जब तुम अपनी जीवनयाा पूरी कर आओगे,तब म इसी साड़ी म तुारा


ागत कँ गी। ये श हवा का झका बनकर रमेश जी को छू ते ए नकले,ऐसा लगा जैसे मालती हवा म


घुलकर उनके कान म ये कह गयी हो। तभी उनक नजर आसमान क ओर उठ गयी। पीला रंग सकु ड़ता


आ सा बदु म परवतत होता आ अनंत म वलीन होता दखा रमेश जी को।उने अपनी आँख बनकर


धीरे से कहा- अलवदा मालती, तुम मेरा इंतजार करना। म बत ज आऊँ गा तुारे पास।।।।


समा

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