पटना
Υशरीष पाठक
अजीब सी कशमकश से घर जाता ँ म
सोचता ँ जब हमारे बारे म
लखना चाहता ँ वो पल जो हम जी लेते है साथ
और वो भी जो हम अ र छोड़ दया करते है
मेरे लए तुम ख़ास ह
उस खुशबु क तरह ख़ास जसके बना फू ल मुरझाये से लगते है
तुमको जान लेना चाहता ँ म रोज़ थोड़ा और
सवाल बन कर खुद उसका जवाब तुमको बना लेना चाहता ँ
तुम मुझे अ र े रत कर जाती हो
तुमको यक न भी नह होता ले कन तुम मेरे अ र एक सकारा क उजा भर देती हो
कई बार म टूट जाता ँअ र से,हार जाता ँ खुद से भी
ले कन तब तुम मुझम अपनी बात से नया जोश भर देती हो
दौड़ती ई सड़क पे कई बार तु ारे साथ क जाता ँ
इस लए क तु ारा साथ थोड़ी देर ही सही और व मल जाए मुझको
तुमको जब भी देखता खुद के करीब
सोच लेता ँ ज़ र म ने कु छ अ ा कया होगा व के साथ
तु ारे साथ खुद को अलग सा ही पाता ँ
सुनते रहना चाहता ँ तुमको जब तुम खामोश सी रहती हो
तुम मुझसे बेहतर समझ लेती हो आसपास क चीज को
और इस लए तुम बस मु ु रा देती हो जब तुमको म खुद से बेहतर बताता ँ
कशमकश