स्वर्णिम दर्पण

(Kumar dhananjay suman) #1
उरपाड़ा पम बंगाल

Ϗǹया पांडेय रोशनी


आई थी दुन बन घर म,
नये अरमान लए दल म,
चार तरफ सुख क घड़ी थी,
क अचानक चार घर म साटा छा गया,
पत था उसका फ़ौज म,
जो शहीद हो गया फ़ौज क लड़ाई म,
आज फर एक वधवा क वरह वेदना,
दुःख म वो टूट चुक,
सपने सरे टूट गए,
लगाकर माथे पर वधवा का टका,
समाज के तानो से कतना रोइ हगी,
कसी ने अभागन कहा,
आखर गलती ा थी उसक,
है कोई? जो उसका दुःख बाटे,
है कोई? जो उसक पड़ा समझ,
टूटी ई खुद को मौन बनाकर,
बन बैठी जैसे पुतला,
समाज ने दुारा उसे,
दुःख खे - सूखे सपने सारे अधूरे,
लेकन आज उसक तीा ना कोई करता,
उसक रोती ई आँख को ना कोई चुप कराता,
ा बीती हगी उसपे,
बीते ना एक महीने भी,
हाथ क मेहंदी ना छु टी,
सफ़े द साड़ी जब उसने पहनी,
सदूर उसका सहम सा
गया,
चूड़याँ जब उसक टूटी,
मंदर मे बंद दरवाजे ए,
समाज वधवा को अगर अपनाता,
फर कोई पता अपनी बेटी के जीवन को अधूरा ना कहता,
ा हक़ नह उसे लाल जोड़े पहनने का,
अपने सपनो को साकार कर रंग म रंग जाने का,
जब - जब आती हगी कसी शहीद क खबर,
फर वो वधवा दुःख से पीड़त होती हगी,
सांसे पल भर उसक क जाती हगी,
और उसको अपनी टूटी चूड़ी, लाल जोड़ो क याद आती हगी।

एक वीरांगना कΫ ώवरह वेदना
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