स्वर्णिम दर्पण

(Kumar dhananjay suman) #1
सतारगंज

θनशांत गहतोड़ी


फटे व ह खुले के श
या सभी नैन श ह खो बैठे
सब रथी महारथी ह बैठे
फर ु उपव समझ बैठे?
पी लए अ समझ जल को
जब हार गयी थी म जीवन
नयन मूक बैठे ानी
भूल गए जब वेद को
धम कु धम बन बैठा
आँचल म छोड़ू कस कसको
होकर कु लवधू अपमान मला
कहती नाम भजो जी कृ न को।
जब जब धम है मौन बना
कालच ने कु च चला
बस पूछ रही ं एक
हे जगत नयंता जगत पता
ऐसा तुमने सार रचा
या कालच ने मुख मोड़ लया
लगे जब जब तुझपर
तू उसके जीवन को बना
ं बनी म जीवन का
म ौपदी ं म पदसुता।
हे पदसुता हे कृ सखी
इाणी का अंशावतार
तू काली है तू दुगा है
बन रणची या कृ ावतार
नव करे जो नारी को
करदे तू उसका संहार
अब व चीर होगा उसका
जसने भी आँख उठायी है
अरे याद करो दुयधन को
उसने भी हार ीकारी है
अब लहर उठे ंकार भरे
हर पटल से ाय मले
धरती से लेकर अर तक
नारी क जय जयकार रहे।
कोई घात लगाए सीमा पर
भारत माँ को ह तोड़ रहे
कु छ सीमा के भीतर रहकर
माँ क ममता झँकझोर रहे
हे ईर तुझसे वनती है
मानवता का तू बोध करा
चलते राहो क नारी को
न उसके जीवन का बना
अब लहर उठे ंकार भरे
हर पटल से ाय मले
धरती से लेकर अर तक
नारी क जय जयकार रहे।

मκ Ƕौपदी


म सवादनी ,कृ सखी
म अकुं ड से ं जी
इतहास बनी उन चीख क
ं पदसुता , म ौपदी
अब लहर उठे ंकार भरे
हर पटल से ाय मले
धरती से लेकर अर तक
नारी क जय जयकार रहे।
ाही थी एक धनुधर से
जसे वा ने बांट दया
य ताप से नकली म
अब पांचाली का नाम लया
सुंदर चत ,उर ,सुकोमल तन
होकर परपूण अपूण सी ं
जसको चसठ म हार गए
म बीच सभा मे त ं
दांव लगी म चसठ का
म पदसुता , म ौपदी ं।
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