स्वर्णिम दर्पण

(Kumar dhananjay suman) #1

9928660047


पदेसर
ााता ह दी लूंणखा
बीकानेर (राज.)

जगदीश θसयाग


उतरा मुंह लेकर आये पोषाहार भारी।
बोले लकड़ी ख हो गई सारी।।
अब बनाये कै से रोटी और दाल।
ऊपर से सब कहते मार खा जाते सारा माल।।
मने कहा, चता ना करो सर।
गैस क टंक कल ही तो लाये थे भर।।
आप तो यू ह चला लेना अपने घर।
यहाँ ना चलेगा मगर।।
जैसे तैसे लकड़ी लाए।
ताक कसी तरह चूा जलाए।
इतने म एक बा दौड़ा आया।
बोला , सर! दूध।
सर दौड़े दूध देखने आया क नह आया ।
जाकर देखा दूध नह आया।।
दूध वाले को फ़ोन कया
दूध वाले ने टाइम लगेगा जवाब दया।।
यह सुन गुजी का मुंह लटका।
क दूध वाले का पेमट था जो अटका।।
वापस आकर गुजी बोले दूध नह लाया।
मने कहा, ऐसे कै से नह आया।
गुजी ने धीरे से कहा , भस कू द गई।
बात 10 बजे से 12 बजे पर पँच गई।।
इतने म एक बा फर आया बोला।
सर! मच ही धनया।
सर जी बन गए एक बार फर बनया ।
देने लगे ही मच और धनया।

जैसे तैसे खाना पका ।
इतने म एक ामीण आ टपका।
बोला: गुजी थे कयां जीमो हो ।
गुजी का ास मुंह म अटक गया।
लोगो क ओछी मानसकता से मुंह लटक गया।।
मेरा तो कहना है
सर! उनको नादान समझ माफ़ कर देना ।
झूठे बतन भी गुजी साफ़ कर देना ।
ताक अगले दन भी ारे ब को पोषाहार मले ।
और उनके चेहरे चाँद से खले।।

पोषाहार ǹभारी कΫ ͩथा
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